रविवार, 18 नवंबर 2012

सुख


हमने दिवाली मनाई। क्या किया? घर साफ़ किया और उसमें दिपक जलाए। अब इस साफ़ सुथरे कमरेमें हम स्वस्थ चित्त होकर बैठें। कोई खेद न हो। कोई व्यथा न हो। शांत और आनंदित मनसे बैठें। कोई चाहत न हो। कुछ कमाने की होड़ न हो। कुछ गँवाने का डर न हो।  कोई क्रोध न हो। कोई वासना न हो। ऐसा हमने अपने मन का कमरा साफ़ किया। जो है उसमें हम खुश है, शांत है। अब इसमें दिपक कैसे जलाएं? राम नाम का दिपक जलाओ। अल्लाह का नाम लो। गॉड की स्तुति करो। नाम संकीर्तन से आनंद आता है। दिल बाग़ बाग़ हो जाता है।    

अब ऐसी स्थितिमें अलगसे कुछ नैतिकताका पाठ पढानेकी जरुरत है क्या? नहीं। ऐसा सहज आनंद हमें मिलता है तो कोई चोरी डकैती नहीं करेगा। भ्रष्टाचार नहीं करेगा। धन हमें आनंद नहीं देता। वह मोह पैदा करता है। बहुत धन कमायें। उससे भी अधिक धन कमायें। अत्यधिक धन कमायें। ऐसा वह खींचता घसीटता लेके जाता है लेकिन यह धन हमें सच्चा सुख कभी नहीं देता। बहुतसे लोग कहते हैं की हमारे बच्चोंको पढानेके लिए हम पैसा खाते हैं। लेकिन बच्चा पढनेके बाद क्या करता है? और ज्यादा पैसा खाता है। न बाप सुखी होता है, न बच्चा सुखी होता है। ये लोग धन और मानकी चक्करमें एक दूसरेको नोंचते खसोटते है। झगड़े करते है। आतंकी भी हो जाते है। शब्दोंसे और हथियारोंसे एक दुजेपे वार करते है। लेकिन आखिरमें जिस बात की याने सुख की अपेक्षा वो करते है वोही सुख पानेमें ये लोग नाकामयाब हो जाते है।      

 सुख अपने अन्दर, अपने मनमें है। हम सुखस्वरूप हैं। इसलिए इधर उधर तलाश करनेकी आवश्यकता नहीं है। स्थिर हो जाओ। शांत हो जाओ। सुख अपने आप उजागर हो जाएगा।   
ॐ 

उठो शिद्दत से करो 
कोशिश चिराग बनने की 
कौन जाने तुम्ही से रोशन 
कल सारा जहाँ हो 

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