शुक्रवार, 28 सितंबर 2012

धूप


सब कुछ अकारण आनंदविभोर है। पहाड़ आनंदमें मगन है। पेड़, पौधे, फूल, फल सारे आनंदमय है। गहरे आनंदमें डूबे हुवे पुलियासे मैं नजर हटाता हूँ और बिजलीके खंबोंसे प्रकट हो रही आनंदकी आभा देखता हूँ। रेल खुश है। आसमानसे खुशी छलक रही है। रास्ता खुश है। हर एक चिजसे आनंद झलक रहा है। सूरजकी चमचमाती सुनहरी किरणें हर तरफ हीरे बिखेर रही हैं। इस आनंदविलासिनी खिली हुई धूपके बहाने मेरे सर्वव्यापी भगवान सांईगणेशजी अपना सच्चिदानंदस्वरूप व्यक्त कर रहे है। 

यह जगद्व्यापी दिव्य आनंद मिटाये नहीं मिटता। यह किसी भी बात का, दिन का, रात का, उम्र का,ऋतू का, रुपये-पैसोंका मोहताज नहीं होता। यह आत्मानंद हर एक चीज से प्रस्फुटित होता है। यह भौतिक सुर्यसे आलोकित नहीं होता। इसका बादलोमें भी और कोहरेमें भी प्रत्यय आता है। यह चित्प्रकाश है जो सभी वस्तुओंमें दमकता रहता है।    

यह अमिट ब्रह्मानंद हमें मिट्टीमें, रेतमें खेलते हुवे मिलता है। लेकिन चिन्तामें व्यग्र होकर हम इसे खो देते हैं। विचारोंमें उलझकर हम इससे विन्मुख होते हैं। हम जिस आनंद को खोजने का प्रयास करते है, उसीसे दूर चले जाते हैं। इन बेढंगे प्रयासोंसे विमुक्त हो जाओ। स्वस्थचित्त होकर खुशीसे जियो। आनंद पाओ।
      

जपाकुसुम संकाशम् काश्यपेयम् महद्द्युतिम् 
तमोरिम् सर्व पापघ्नम् प्रणतोस्मि दिवाकरम् 
       
न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावक:
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम

असतो मा सद्गमय 
तमसो मा ज्योतिर्गमय 
मृत्योर्मामृतम् गमय 
ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति: 

    

शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

मकसद


घाव भरे दुखियोंके 
मरहम बनकर काम आये 
मेरे काव्यके सृजनका 
मकसद हरदम रहे यही 

यह सुगंध बनकर महके 
दुनिया बने फुलवारी 
यह सावन बनकर बरसे 
संताप हरे सबका यही 

ज्ञानके दीपक जले 
जगमग चमके खुशियाँ 
आँखोंमें उजाला दमके 
चाहत मेरी बस है यही

अच्छाईका उत्थान हो 
बुराईका पतन हो सदा 
आओ मिलकर प्रण करें 
अच्छे बने हम ध्येय यही 

नफरतोंका ढेर है बारुदका 
इस तरह भिगो दें फिर ना जल उठे 
प्यार फैले सब तरफ हो शांतता 
अपना मकसद है यही हाँ है यही