रविवार, 7 फ़रवरी 2010

गुस्ताखी


अल्लाहसे जो इश्क हुवा
इस देनको जाहिर कैसे करूँ
ये बेअसर लफ्जभी
नाकामयाब हो जाते हैं
गरजकर बादल बरसते है
और भीग जाती है
दिलकी जमीं
दुनियाभरके प्यारको
समेटना आसान नहीं होता
जोश बेताब लहरोंको
इस तरह आता हैं
जाने दिल कहाँ
यूँही बहते जाता है
परवरदिगार मुझे इतना
अमीर क्यूँ बनाया तूने
खज़ाना उमड़ पड़ता है
संदूक डूब जाती है
जिस्मोजहनका
पताही नहीं मिलता
गुस्ताखी इस कदर
हदसे पार होती है
यादे हक भूलके
अनल हक बनता हूँ
गलती मेरी नहीं है
खुदा तेरी मर्जी है
वरना बन्देके मुँहसे
बात निकलती नहीं
तेरे नामकी मिठाससे
चुप्पी साध लेता हूँ