रविवार, 24 अक्तूबर 2010

हार



अल्लाह तूभी दिवारोंमें कैद हो गया
भगवान सलाखोंके पीछे है
हर किसी बेड़ेने अपना ठप्पा लगाया है
हर किसी खेमेका अपना अलग निशाँ है
किसीको खज़ाने की चिंता है
किसीको दीवारोंकी फिक्र है
और यह दीवाना गलियोंमें घूमता है
सोचते हुए की कभी तू सबका हुवा करता था
मुझे सबको कहना पड़ता है
की तू मुझमें भी है
ख़ैर मैंने बोलनाही छोड़ दिया है
क्यूँकी दुनिया न तो तुझे जानती है
न मुझे पहचानती है
मालिक, यह तो तेरी दया है
की मेरी जुबाँ इस काबिल है
जो तेरा नाम लेती है
और तू मेरे दिलो दिमाग में बैठ के
मेरे साथ आवारा घूम रहा है
बुतपरस्ती भी छोड़ दी मैंने
और न काबेकी तस्बीरोंको देखता हूँ
इस कदर मायूस किया है
मुझे इन दुनियावालोने
ऐ खुदा, मैं खुदसे भी हार गया हूँ
मेरा वजूदही क्या है
लेकिन तुझपर भरोसा है
या परवरदिगार तुझसे
मैंने मुहोब्बत की है
जिंदगी हारती नहीं
बंदगी हारती नहीं
मैं हार भी जाऊँ लेकिन
मुहोब्बत हारती नहीं