रविवार, 17 अक्तूबर 2010

दशहरा


भगवान,
इन्द्रियजन्य सुखोंकी कामना मैं नहीं करता
ऐसे सुख मुझे लालसामें बाँध लेते हैं
मैं उनके पीछे बेबस होकर खींचता जाता हूँ
मैं उनका गुलाम होकर उन्हें पानेके लिए
उलटे सीधे उद्योग करता रहता हूँ

वास्तविक सुख तो तेरे स्मरणमें है।
जो मन को शान्ति प्रदान करता है
बेवजह बड़े बड़े काम करते रहना सुखप्रद नहीं
अत्यधिक सुख पानेकी आकांक्षा रखना सुखप्रद नहीं।

मन की शान्ति सच्चा सुख है
जिससे इंसान इधर उधर भटकता नहीं
ऐसा स्थिर मन जब तेरे चरणोंमें आता है,
तब अहंकार आदिके सारे बोझ हट जाते हैं
मन फूल समान कोमल और हल्का हो जाता है

हे सर्वान्तर्यामी, सर्वव्यापक रामा,
यही मेरा दशहरा है
मैं दसों इन्द्रियोंकी गुलामीसे आजाद हो गया हूँ
मेरा अहंकार रूपी रावण मर गया है
कुण्डलिनी सीताशक्ती जो इस देहमें कैद थी,
वह सहस्त्रार कमलको लांघकर
विश्वव्यापक
रामपरमात्मासे मिल गयी है
मैं धन्य हो गया प्रभो
।। जय श्रीराम ।।