शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

अनकही



तू मजारमें है जो सोता

मेरी आँखोंसे तू रोता

बाबा ऐसा क्यूँ है होता

मेरा तुझसे क्या है रिश्ता

मुझको तू क्यूँ है बुलाता

पाना तो मैं कुछ न चाहता

तेरी ओर मैं खींचा आता

मुझको तो कुछ न समझता

मुझसे तू है क्या कराता

क्या जताता क्या बताता

मुझको मिलकर खुश तू होता

दुनियादारीको भुलाता

अनकही किसको मैं कहता

लफ्ज कैसे ढूंढ़ लाता

बिन सुने सबकुछ समझता

जिस्मसे ऊपर मैं उठता

कैसे तू करीब लाता

कोशिश मेरी नाकाम करता

तेरा असर मुझपे है छाता

मुझको तू अपना बनाता

खुदाभी मेरा हो जाता

मेरा वजूद बाकी न बचता

मैं खो जाता तुही रहता

रिवाजोंको तोड़ देता

सिर्फ इक मकसदको पाता

अल्लाह ईश्वर सबका दाता

मुझको तू उसमें मिलाता


मुहर्रम गीताजयंती