सोमवार, 4 अप्रैल 2011

मुलाक़ात



फूल
मुरझा जाते हैं
खिलती तबस्सुम रहती है
बदलते रहते हैं प्याले
नशा कायम रहता है

जिस्मानी चाहत नहीं
न मयका यह सरुर है
मस्तमौला होनेको
ख़याल-ए-खुदा काफी है

देनेवाला देते रहता
आती
जाती है क़यामत
कम नहीं उमंग होती
कशिश बढती रहती है

तेरा है कमाल मालिक
देता सबको जिंदगी
बन्देकी क्या औकात है
तू फ़तेह देता रहता है

जिक्र तेरा क्या करूँ
मेरी जुबाँ है लड़खड़ाती
पहुँचता तुझतक तो हूँ
सब पीछेही रह जाता
है

कौन किससे मिलता है
यह होश किसको रहता है
कौन किसको क्या बताए
सिर्फ तूही रहता है


।।
यतोवाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसासह ।।